नीति आयोग ने गन्ने की खेती कम करने की सलाह तो दी पर क्या किया जाए यह बताना भूला

 देश के लिए लघु, मध्यम और दीर्घकालिक योजना बनाने का जिम्मा संभाल रहे नीति आयोग ने गन्ना और चीनी उद्योग पर अपनी सोच तो प्रकट कर दी है लेकिन दोनों के बीच सामंजस्य बिठाने में असफल रहा है। यह कहा जा सकता है कि राजनीतिक रूप से अति संवेदनशील गन्ना उत्पादकों के लिए कोई ठोस वैकल्पिक राह सुझाए बिना ही चीनी उद्योग के विकास का रोडमैप तलाशता दिखा है। मसलन गन्ना खेती को कम करने की सलाह तो दी है लेकिन क्या किया जाए यह भूल गए।

पंजाब और हरियाणा में गेहूं व चावल की निश्चित खरीद की गारंटी मिलने के साथ ही गन्ना खेती सिमटती चली गई। इस तरह के प्रयोग पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सफल हो सकता है। रिपोर्ट में गन्ना खेती की लागत बढ़ने और इसके कई दुष्परिणाम गिनाए गए हैं। लेकिन इससे निपटने वाले विकल्पों को लेकर रिपोर्ट खामोश है। बकौल नीति आयोग, निश्चित रूप से एक किलो चीनी बनाने में डेढ़ से दो हजार किलो पानी खर्च होता है।

देश में चावल और गन्ना खेती की सिंचाई में कुल पानी का 70 फीसद खर्च होता है। लेकिन एक आंकड़ा और भी हैरानी भरा है कि देश से जिंसों के निर्यात में सर्वाधिक हिस्सेदारी चावल और चीनी की होता है। इस बात को बार-बार दुहराया भी जाता है ‘हम चावल व चीनी नहीं बल्कि पानी का निर्यात करते हैं।’ जबकि आयात उन जिंसों का करते हैं, जो असिंचित क्षेत्रों में पैदा होने वाली फसलों दाल (दलहन) व खाद्य तेल (तिलहन) का करते हैं। इस तरह की उलटबांसियों से निजात पाने की जरूरत है।

नीति आयोग की सिफारिशों में गन्ना खेती का रकबा कम से कम तीन लाख हेक्टेयर घटाने की जरूरत बताई गई है, जिससे 20 लाख टन चीनी का उत्पादन कम हो जाएगा। इससे चीनी की मांग व आपूर्ति के अंतर को घटाने में मदद मिलेगी। इसके लिए कृषि मंत्रालय और जल शक्ति मंत्रालय संयुक्त रूप से तीन साल तक दूसरी फसल की खेती में प्रायोगिक तौर पर किसानों की मदद करेंगे।

रिपोर्ट में गन्ना रकबा घटाने के साथ परंपरागत ग्रामीण उद्योग गुड़ व खांडसारी को प्रोत्साहन देने का विस्तार से जिक्र किया गया है। लेकिन यह उद्योग वर्तमान में अंतिम सांसे गिन रहा है। चीनी उद्योग के हिसाब से बनायी जाने वाली नीतियों के आगे यह कुटीर उद्योग बेबस है। लेकिन चीनी उद्योग को संकट से उबारने के लिए फिर उनकी जरूरत महसूस की जाने लगी है। लेकिन उन्हें उचित माहौल और वित्तीय और आधुनिक तकनीक की जरूरत है। घरेलू बाजार में चीनी के मुकाबले गुड़ का मूल्य कई गुना तक अधिक है।

आयात-निर्यात नीति में स्थिरता न होने की वजह से भी गन्ना किसानों और चीनी उद्योग की हालत खराब हुई है। इस नीतिगत मसले पर भी रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से बहुत कुछ नहीं कहा गया है। वैश्विक बाजार में घरेलू चीनी महंगी होने से इसकी मांग नहीं के बराबर हो गई है। घरेलू खपत की वृद्धि दर स्थिर होने से स्टॉक साल दर साल बढ़ रहा है। ऐसे में कीमतें निचले स्तर पर है, जिसे न्यूनतम बिक्री मूल्य घोषित कर संभालने की कोशिश जरूर की गई है। ऐसे में बफर स्टॉक का कोई औचित्य नहीं है, जिस पर रिपोर्ट में भी सवाल उठाया गया है।

प्रगतिशील गन्ना किसान व नेता डाक्टर सुधीर पंवार का कहना है कि गन्ने की खेती के लिए उपयुक्त क्लाइमेटिक जोन तमिलनाडु, कर्नाटक और महाराष्ट्र को बताया गया है जहां तेज धूप और लंबा दिन होता है। यह गन्ने की उत्पादकता के साथ चीनी की रिकवरी दर भी उच्चतम होती है। लेकिन महाराष्ट्र को छोड़कर बाकी दोनों राज्यों में गन्ने की सीमित खेती होती है।

 

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